सिसकियों में हीं पलती है तमन्ना-ए-दस्त यार
इस शहर के आब-ओ-हवा में कुछ तो है अलग ।
अब बेजुबान है खड़ी गुलशन की हर कली
ऊपर से किसी मौत का आना तो है अलग ।
बेचैन हो सूखे हलक का पानी ढूँढना
लब तक पहुँच के ज़ाम का गिरना तो है अलग।
महफ़ूज दफ़न होतीं हैं विराने में खुशियाँ
पर ज़िंदगी का आँसू बहाना तो है अलग ।
अब कौन है किसकी सुने सब धुन मे है अपने
इस दौर में अफसानों का गाना तो है अलग ।
( आत्महत्या की बढ़ती वारदातों के ऊपर, 1/5/2013 )
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