वसंत का मौसम आने वाला था। एन॰एस॰एस॰
द्वारा चलाई गयी एक मुहिम ‘यूथ टू दि एज़’ के तहत मैं 22 फरवरी 2012 को भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश के
लिए रवाना हुआ। इस मुहिम का मक़सद ये था कि हम भारत की सीमाओं के रहन-सहन, रीति-रिवाज़, वातावरण से समन्वय स्थापित कर सकें।
यात्रा कुल मिलाकर पंद्रह दिनों की थी, परंतु पाँचवा दिन
मेरे स्मृति-पटल पर एक अविस्मरणीय अनुभव छोड़ गया। अरुणाचल के एंजाओ जिले मे
पर्वतों से घिरा हुआ हमारा बसेरा था। फेसबुक, इंटरनेट, मोबाइल इन सब से दूर करती वहाँ की तकनीकी रूप से अभावग्रस्त ज़िंदगी ने
क्या-क्या दिये इसे फिलहाल न बताते हुए मैं सीधे चलता हूँ यात्रा के पाँचवे दिन की
ओर।
पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के तहत हमे निकट
के एक गाँव जाना था। पैदल चलकर हम अपने गंतव्य तक पहुँचे। उस गाँव का नाम था- ‘ताफ़्रालियांग’। गाँव
के ज्ञात परिभाषा से पूर्णत: भिन्न था ताफ़्रालियांग। हमारी टोली पहले उस गाँव के
इकलौते शिक्षा-केंद्र माध्यमिक विद्यालय में पहूँची। वेश-भूषा और चेहरे की बनावट
में भिन्न हमलोग वहाँ के बच्चों के लिये नस्ली रूप में आयातित हीं थे। सब देख कर
भौंचक्के थें। हमने सबसे बात करने की कोशिश की, परंतु भाषा न
तो उनकी हमारे पल्ले पड़ी, न हमारी उनके। अंतत: जानने की
प्रक्रिया में वहाँ के शिक्षक हमारे काम आये। उस विद्यालय मे कुल आठ कक्षाएं व सात
शिक्षक थें। जंगल में जैसे लहसून का एक छोटा-सा खेत हो, उसी
तरह प्रकृतिक सुषमा के बीच बसा था ताफ़्रालियांग। पता चला की वहाँ की प्राथमिक भाषा
अंग्रेज़ी व दूसरी भाषा हिन्दी है। समझ में नहीं आ रहा था की हिन्दी दूसरे नंबर पर
जीवित थी तो थी कैसे? बाद मे पूछताछ के दौरान पता चला की ये
देशप्रेम था जिसने चीनी घुसपैठी हमलों के बावजूद हिन्दी को ज़िंदा रखा। सुविधाओं के
नाम पर वहाँ कुछ भी नहीं था। 250 लोगों की कुल जनसंख्या वाले ताफ़्रालियांग में
एकमात्र माध्यमिक विद्यालय था, जिसके शिक्षक रोजगार की
मजबूरी में शिक्षण कार्य कर रहे थें। इसके अलावा न तो कोई चिकित्सा-केंद्र था न ही
कोई और सार्वजनिक सुविधा।
ख़ैर हम पाँच लोगों की एक टोली बनाकर अलग-अलग
परिवारों के साथ उनके घरों को गए। पहाड़ पर जैसा कि पाया जाता है –घर अस्थायी होते
हैं। ईंट-पत्थर, सिमेन्ट, सरिया के न के बराबर प्रयोग से बनी, लकड़ी के खंभों
पर टिकी थी उन घरों की नींव। इसके पूर्व जो घर मैंने देखे थे उनमें दूसरी मंजिल पर
जाने के लिए सीढ़ियाँ प्रयोग की जाती थी, परंतु यहाँ घर में
प्रवेश हेतु सीढ़ियाँ थीं। घर में प्रवेश करते हीं मै एकदम-से सकपका गया। दरवाज़े के
अंदर शुरू होती थी अधजली खोपड़ियों से सुसज्जित दीवार। सुनार जैसे दुकान में
आभूषणों को नकली काले गर्दनों पर टिका कर रखते हैं, ठीक वैसे
हीं सजा रखा था उन्होनें पूरी दीवार को जानवरों के काले खोपड़ियों से। उसके ठीक
विपरीत चौड़ी-सी जगह में अलाव लगा हुआ था। मोटे-मोटे अधजले लकड़ियों के ऊपर छप्पर के
सहारे रस्सी से लटकी थी तसली, जिसमें वे भोजन पकाते थे। यह
दृश्य अनायास बीरबल की खिंचड़ी पकाने के अंदाज़ की याद दिला गया था। उनके वहाँ वे
चूल्हे नहीं थे जहां आंच लगाने के लिए जलावन को चूल्हे के मुँह के अंदर धकेलना
पड़ता है। आगे बढ़ते हुए दीवार के सहारे लटकी एक बाँस की सुंदर-सी टोकड़ी पायी जिसमें
बहुत सारी पतली, सफ़ेद रस्सियाँ रखी हुई थी। हालांकि ये
ज्यादा भिन्न तो थी नहीं, पर सवाल हर कदम पर थें। जिज्ञासा
में हम पूछ बैठे कि ये धागे इतने अलग ढंग से क्यूँ रखे हुए हैं? तब पता चला कि उनकी जनजाति में विशेष आयोजनों पर निमंत्रण-पत्र स्वरूप ये
धागे भेजे जाते हैं। धागों में लगी गांठें आमंत्रित जनों कि संख्या को दर्शाती थी।
तकनीकी रूप से अभावग्रस्त उस गाँव में मोबाइल था; पर नेटवर्क
5 कि॰मी॰ नीचे आकर मिलता था, टाटा स्काई था; तो बिजली महीने में यदा-कदा बत्तियाँ जला जाती थी। खैर, हम घर के अंदर बैठें और परिवार के सारे सदस्यों से घिरकर गप्पों में गोता
लगाने लगे।
अरुणाचल प्रदेश में कुल अठारह
जनजातियाँ हैं और सब के सब हिन्दू धर्म को मानने वाले हैं। हमारा परिचय जिस परिवार
से हुआ था, वे ‘मिश्मी’ जनजाति के दो उपजातियों में से एक ‘डिगारु मिश्मी’ थे। बाद में जब इंटरनेट के माध्यम से
मिश्मी को जानने कि कोशिश कि तो पता चला कि डिगारु नाम कि नदी के किनारे बसने वाले
मिश्मी ‘डिगारु मिश्मी’ कहलाएँ, तो ऊँचाई पर; पहाड़ों पर रहने वाले मिश्म, ‘इदु मिश्मी’ कहलाएँ।
दिल्ली जैसे शहर में रहकर कोई
अरुणाचल प्रदेश जाए, तब पता चलता
है ज़िंदगी इतनी भी आउटडेटेड हो सकती है! वैश्वीकरण ने वहाँ कोक, पेप्सी तो पहुँचा दिया था परंतु देश-दुनिया को जानने के लिए अख़बार दो दिन
बाद मिलते थे। परिवहन के नाम पर अरुणाचल परिवहन कि दो-चार बसें चलती थीं उस रूट
से। हालत ये थी कि ताफ़्रालियांग के लोग चिकित्सा हेतु 7 कि॰मी॰ दूर हायुलियांग
जाते थे। वो भी बस मिल जाए तो ठीक वरना पैदल। जनसंख्या का घनत्व इतना कम था कि हम
जहाँ थे वहाँ मात्र चार परिवार बस्ते थें। मतलब एक गाँव पूरा करने के लिए
क्षेत्रफल बहुत हीं बड़ा करना पड़ता था। उससे अगला गाँव 4 कि॰मी॰ दूर था। परिवार के
सदस्यों से पता चला कि वहाँ ‘नेता’ बस
वोट माँगने भर आते हैं। एक-एक वोट वहाँ पैसों से बिकते थे। गाँव का प्रधान उम्मीदवार
से मोटरसाईकल वगैरह पा जाता था और गाँव वालों को किसी ख़ास उम्मीदवार को वोट देने
के लिए विवश करता था। गरीबी इतनी थी कि वोट के नाम पर उम्मीदवारों से प्राप्त
₹5000, ₹10,000 उनके लिए लोकतन्त्र की
मर्यादा से कहीं ऊपर था।
खैर, हमने उनकी रीति-रिवाजों को जानने की कवायद
शुरू की। घर की सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त हीं दायीं ओर एक बाँस की झुरमुठ के ऊपर टोकरी
में ढ़के मुर्गे-मुर्गियों के पंख दिखे थे। पता चला कि मिश्मी कोई भी शुभ-कार्य, अनुष्ठान करने से पहले पक्षियों कि गर्दन मड़ोड़ उस टोकरे में रख देते थे
ताकि ख़ून रिसता रहे। उनकी मान्यता थी कि उनके ईष्ट-देव ‘शान
इन मून’ उस रक्त को पी जाते हैं। घर में हमने अनोखे धारदार
हथियार देखेँ, जिसका प्रयोग वे जंगलों में या तो शिकार हेतु
या लकड़ियाँ काटने में करते थे। छः साल का बच्चा भी अपनी कद-काठी के अनुसार कमर में
वो ‘दाव’ लटका के चलता था। उनका एक ही
बड़ा त्योहार होता था, जिसे ‘तामलाडू’ कहते हैं। फरवरी 14 और 15 को रोमन कैलेंडर के अनुसार इसे मनाया जाता है।
समाज के सारे स्त्री-पुरुष हाथ में हाथ डालकर अनूठे; नृत्य
के पहाड़ी तरीके से पैर को आगे-पीछे करते, गोल-गोल घूमकर
नृत्य करते थे। पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ भारत के किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों
के इस कदर सारे रीति-रिवाजों में समान रूप से शरीक होने की बात सामने नहीं आती है।
आभूषण चाँदी के थे, पर अपनी बनावट व नक्काशी में दक्षिण
भारतियों से कहीं पीछे नहीं थे। ताज्जुब तो तब हुआ जब चाँदी के बने एक पात्र को
देखा जिसके इस्तेमाल धूम्रपान के लिए होता था। आज भी सामान्यातः इलीट कहे जाने
वाले लोग हीं वैसे पात्र का इस्तेमाल करते हैं। औरतें ‘मेखला’ पहनती थी जो दक्षिण भारतियों वाले लूँगी की तरह पहना जाता है।
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मिश्मी के रंग-ढंग |
सबसे अनूठा व रोचक था उनकी वैवाहिक
परंपरा। मिश्मी अपने दहेज के अद्वितीय रिवाज़ के लिए प्रसिद्ध है। वहाँ दूल्हे के पिता को
शादी से पहले लड़की के परिवार के सारे पुरुषों को एक-एक मिथुन देना पड़ता है। मिथुन भैंसे
की एक प्रजाति जिसके सींग काफ़ी मजबूत व शरीर बलिष्ट होते हैं। उसका प्रयोग खेती के
कार्यों में होता है। जो परिवार ज्यादा समृद्ध होता है, वो लड़की के चाचा,
फूफा, मौसा तक को मिथून देता है अपितु पिता और भाई को देना
तो अनिवार्य हीं था। इसके साथ हीं लड़की के परिवार को ‘पानी-खेती’ अर्थात धान के खेत मिलते हैं लड़के वालों की ओर से। जहाँ दहेज से पूरा
भारतीय समाज अभिशप्त है वहीं पूर्वोत्तर के राज्यों में इस कुप्रथा के विपरीत
लड़कों से मिथुन लेता है। एक से बढ़कर एक रोचक जानकारियाँ मिलती गईं। इस दौरान यह भी
पता चला कि प्रेम में पड़कर अगर कोई युवक किसी युवती कि भगाकर शादी कर लेता है, तो उसे किसी खाप का सामना नहीं करना पड़ता है। अपितु जब लड़के का पिता लड़की
के परिवार के हर सदस्य को दो-दो मिथुन दे और साथ हीं लड़के के हिस्से में आने वाले
खेतों का आधा हिस्सा लड़की के नाम हो जाती है, तब समाज उस
दंपति को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। यह है एक ख़ास बात मिश्मी की। मिश्मी समाज में
दहेजा का स्वरूप अलग है और ये अभिशाप नहीं वरदान है। अंततः हम फिर से उन खोपड़ियों
के बीच से बाहर आए।
मन
अशांत था, फिर भी शांत था। जहाँ समाज इतना अभावग्रस्त
था, वहीं पर्यटन व तकनीक से दूर अरुणाचल अपनी संरचना की
पवित्रता में पूर्ण प्राकृतिक था। प्रदूषण शब्द अस्तित्वविहीन लगता है वहाँ। मन तो
सूर्य की पहली किरण में नहाने वाले उस भूमि पर बस जाने को कहता रहा, परंतु ये संभव नहीं था। पहाड़, बर्फ, ठंडे-मीठे जल वाली कलकल करती नदियाँ, घुमड़-घुमड़ के
बनते बादल, सर्द हवाएँ, कमर में दाब
लटकाए मिश्मी, मेखला में लिपटी पूर्वोत्तर की अनन्य सुंदरता
आज भी मुझे वापस बुलाती है, इस शहर की झुंझलाहट से दूर।
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