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Saturday, June 7, 2014

जड़-धर्म

हमारा सामाजिक ढांचा उन खुबसूरत दरख्तों की तरह है जिनकी जड़ें धरातल के अंदर दबी होती हैं। जिसके ऊपर-ऊपर ऋतुओं के पालने में जवान होती पत्तियाँ हैं ,फूल हैं, फल हैं,पवन की सनसनाहट पर झूमती टहनियाँ हैं।  इन्हे रौशनी भी मयस्सर है और फिज़ा की बदलती मौसमें भी पर उन जड़ो का क्या जिसने चमन की खुबसूरती को अपने सर पे उठा रखा है ?  अँधेरे में दबे उन पोषकों का क्या जो खुद को जमीन में दिन-ब-दिन केवल इसलिए धँसाएँ जाते हैं कि ऊपर वाले आकाश की ओर बढ़े; भले हीं उसकी फुनगी पर बैठ कोई दुनिया भी न देख पाता हो ! इन जड़ों की किस्मत भी उन अंधी माताओं के जैसे हैं जो बच्चे को जन्म देती है ; जान से बढ़कर प्यार देती है पर उसकी सूरत देखने की अभिलाषा में जिसका अस्तित्व हीं आशंका के घेरे में है उसे ख़ुदा को कोसती रहती है। पर ये जड़ें तो मूक-सजीव हैं।  किसे कोसेंगी ये ,किस मुह से ? सच तो यह है कि इनके अंदर किसी तरह की अशान्ति, दुख, वैमनष्य, असंतोष या हीनता का भाव ही नहीं है। इन्होनें कभी ऊपर आने की कोशिश ही नहीं की। अब जिसने दब के ऊपर वाले को सींचना अपनी नियति मान लिया हो उसकी चिंतन-परंपरा के ऐसे रूढ़ियों को भला कोई मार्क्स भी कैसे बदल सकता है! बीज जब अंकुरित होता है तो जड़े सबसे पहले निकलती हैं। पर ऐसे पदार्पण का क्या मतलब जब बाद में उपजने वाला तना उसका शोषण कर ऊर्ध्वार्धर बढ़ता हीं जाता है। शायद हीं किसी वृक्ष की जड़े उसके तने से बड़ी होता हो! होती हीं नहीं होंगी ,अब जड़ों के परंपरागत मूल्यों की रक्षा वें न करें तो कौन करेगा! कभी-कभी तो उनके ही दर्जे के कीड़े-मकोड़े उन्हें खोखला कर देते हैं। जहां तना अपने उपांगों के साथ फूल-पत्तियों से ,सुंदर छाल से अलंकृत हो सभ्य होने की मिसाल पैदा करता है वही ये दमित जड़ें आज भी निर्वस्त्र-नग्न तल के नीचे निश्चिंत हों पड़ी हैं। प्रकृति ने पक्षी, फूल और स्त्री को सबसे सुंदर व मनमोहक बनाया। जड़ों का संबंध परस्पर फूल और पक्षी दोनों से है परंतु प्रकृति की इन सुंदरता के ये रक्षक कभी इनके सौंदर्य का स्वाद भी न जान पाएँ! ' दुष्यंत कुमार' ने तो कह दिया कि

            " कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हों सकता
                    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों । "    

पर इनकी तबीयत ठीक कौन करे? 'जड़-चेतन' को तो हमने बचपन से हीं विपरितार्थक के रूप में जाना है। अब भला व्याकरणिक संशोधन की नौबत आने का कारण ये भले 'जड़' क्यूँ बनें ? कितनी जिम्मेदारियाँ हैं न इनके ऊपर ! व्याकरण की मान रखनी है, शोषकों को पोषण देना है, असूर्यम्पश्या के धर्म का निर्वाह करना है और सदा नीचे रहना है । आकाश किसी और का ,फिज़ाएँ किसी और के हिस्से में, बारिश की फुहारें किसी और के लिए, मौसमों का मिज़ाज किसी और के हिस्से हम यथावत बने रहेंगे। बारिश का कुछ जल रीस-रीस के उस तक पहुँच पाया तो ठीक वरना कोई आपत्ति न पहले हुई ना आज होती हैं। बस साश्वत शोषित-धर्म का पालन करना हीं इनकी ज़िंदगी का मकसद है। जियो भाई जियो जैसे जीना है जियो , जड़ हीं बने रहो क्यूंकि चेतना को तो तुमने पादप शरीर-रचना (Anatomy) के विपरीत न जाकर शोषकों को सौंप दिया है ! पर दुनिया तुम्हें गुरुत्व के विरुद्ध ऊपर उठते देखना चाहती है । कभी तो सोंचो कि तेरे हिस्से कि धूप कौन खा रहा है?  कब से जड़ हो !....... अब तो चेत जाओ !  

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