सोंच, साधन, शिक्षा, रोजगार आदि को सभ्यता के गुणवत्तापूर्ण अपडेटेड वर्जन में ढालने के लिए लोग 'घर' छोड़ शहरों को आते हैं। पर जब-जब शहर की तपती फिज़ाओं ने इन्हे झुलसाया, बेमुरौअत इंसानियत ने रुलाया तब-तब अनायास मुंह से निकल जाता है ..."अपना गाँव कितना अच्छा है!" जिसने गाँव छोड़ा है अपने लिए, अपनों के लिए, उनके पीछे कोई अपना-सा लगने वाला 'गाँव' तो है यादों में! पर उनका क्या, जिनका गाँव हीं आज शहर बना हुआ है? उनका क्या जो शहर में हीं पैदा हुए, बोर्न बीटा पी के बड़े हुए और पूरी जवानी कूलर -एसी की हवा खा के और मेट्रो की चाल में चलकर काटी हो? उनके यादों में कोई गाँव नहीं होता.....होता है कोई जापानी पार्क , कोई लोटस टेंपल , नैनीताल , शिमला जो उनका अपना कभी नहीं होता बस अभाव और ख़ास किस्म की बेचैनी में शहर से बेहतर लगता है।
हम पौराणिक रीति-गीति को शहर में रहकर भी ढोना नहीं भूले हैं। दीवाली में भले हीं तेल व घी के दीये की जगह रंगीन बत्तियाँ जलाते हों, भले रोज़े की इफ़तारों में सब मिल-बैठ रोज़ा तोड़ने की जगह अंधेरी कोठरी में कुछ भूनकर खा लेते हों, दशहरे के मेले में नटुआ का नाच न देखते हों, किसी ताल-तलैया के अभाव में प्लास्टिक की टब में भरे पानी से हीं छठ पर्व के अर्घ्य दे देते हों, ढ़ोलक की थाप पर फिल्मी गीतों को हीं शादी के रश्मों में गाते हों ....पर हर कदम पर गाँव को ज़िंदा रखने की कोशिश करते जरूर हैं। शहर हमें पग-डंडी की जगह पक्के फूटपाथ , मिट्टी तेल से टिमटिमाती डिबिया की जगह चौंधियाने वाली रोशनी उगलते बल्ब , बैलगाड़ी की जगह मेट्रो , खुले-पसरे खेतों की जगह पार्क और समाज के नाम पर मै का का भाव देता है। अक्सर इन्हीं फूटपाथ, पार्क और बिजली-बत्तियों ने रोजगार के नाम पर ख़ून-पसीना बहाने शहर आए गाँववालों को रहने का ठिकाना दिया है। सुबह-सुबह या देर रात शहर के हर फूटपाथ पर दिखता है एक गाँव।
दही जमाने के लिए पड़ोस से जोरन मांगता है गाँव, खाना पका लेने पर पड़ोस की दादी के लिए एक कटोरी बनी तरकारी भेजता है गाँव, किसी के भैंस के बच्चा देने पर सारे पड़ोसी को खीर खिलाता है गाँव, जब माँ खाना बनाती है तो तवे के पास आंटे से बनी चिरईयों को निगलने की आस में बच्चों-सी टकटकी लगा के बैठता है गाँव, मस्जिद से दिए अज़ान पर एक साथ उठकर सेहरी खाता है गाँव, भाई-दूज पर रेगनी के काँटो को जीभ में चुभो कर भाई के लम्बी उमर की दुआ करता है गाँव, बैलगाड़ी पर सवार हो मेला देखने जाता है गाँव, सास-ननद; देवर-भौजाई के रिश्तों की ठिठोली है गाँव, चटाई पर बैठ डफली बजा बड़े-बूढ़ों की गायी होरी है गाँव, नयी दुल्हन की मुँह-दिखायी के लिए अगुताई औरतों की जमात है गाँव, पावन मौकों पर गाय के गोबर से लिपी अंगनाई है गाँव, खाट पर अंगराई लेते बाबा की तरुणाई है गाँव।
गाँव जहां समष्टि की सोंचता है, वहीं शहर व्यष्टि की। वहाँ एक की बेटी सबकी बेटी होती है, एक जी इज्ज़त पूरे गाँव की। शहर इन खयालातों से भी अनजान है, जहाँ गाँव की आत्मा एक घने-अंधेरे कमरे में बंद बस अपनी हीं सोंचता है। पर आज गाँव मड़ई की छाया से निकल छतों में रातें काट रहा है, हल-बैल को ट्रैक्टर ने पता नहीं कहाँ गायब कर दिया है, दौनी-ओसौनी का जिम्मा आज थ्रेसिंग मशीनों ने ले लिया है, दादी की कहानियाँ कहीं खो गईं हैं, गुड्डे-गुड़ियाँ प्लास्टिक की हो गईं हैं। यादों की ओट में छिपते जा रहे गाँव को हमारे आने वाली पीढ़ी तक कौन पहुंचाएगा? मदर-डेयरी का दूध पीते बच्चें गाय-भैंस को कैसे जानेंगे, कैसे जानेंगे, पीपल-बरगद-आम के पेड़ो को? कैसे जानेंगे कि चावल पर छिलका भी होता है जिसे धान कहते हैं? कैसे जानेंगे कि मम्मी कभी माई , पापा कभी बाबूजी हुआ करते थें? बस किताबों से, अजायबघरों से, बोटानिकल गार्डन से ....! क्या गाँव में बसने वाली इस देश की सभ्यता संस्कृति अब संग्रहालयों, अजायबघरों और किताबों में सिमट जाएगी?
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