"फ़ादर्स डे" मनाने की खुमारी सर चढ़ के बोल रही है। सुबह- सुबह फेसबूक पर किसी ने अपने फ़ादर के लिए लिखा था - 'You are my coolest dady'. पढ़ के लगा सच में डैडी हिमालय हीं होंगे। गणेश जी ने तो पिता को पर्वत मानकर हीं कार्तिकेय को हराया था और सब देवों से पहले पूजे जाने लगें। ले दे के पिता को कम समय में मूसक की सवारी करने वाले ने खुश कर दिया था। आज भी सारे सुपुत्र खुश करने में लगे हैं, अपनी सुविधानुसार अपने पापा, डैडी, पिता, पिताजी, बाबूजी, अब्बा, बाबा, पापाजी, डैड आदि को। किसी की लंबी सुनिश्चित प्लानिंग होगी इन्हें खुश करने की, बहुतों ने सोशल मीडिया के सहारे पीठ पीछे बधाई दी होगी। पर भावनाएँ हर सुपुत्रों की आज उफ़ान मार रही है। Happy Father's Day स्टेटस में ठेल दिएँ, 5-10 लाइक , 2-4 कमेंट आयें और पापा खुश! आज सुपुत्रों का मानना है कि टेलीपैथी के जरिये पापा तक खबर पहुँच हीं जाती है।
पॉपुलर कल्चर ने क्या-क्या नहीं दे दिया हम नकलची इंडियंस को! 70 के दशक में पैदा हुये पिता ये संज्ञाएँ कैसे पचाते होंगे? वे हीं जाने। बाउजी कहने वाले को डैड सुनना पड़ता है। हमारे संस्कारों की प्रविधि मे लगातार गिरावट आई है, जैसे रुपया कमजोर होता गया। प्रणाम करने की विधि सूर्य नमस्कार के छठे चरण से सिमट कर, मुंह से नमस्ते ठोकने भर रह गयी है। फिर भी कुछ हैं जो सूर्य नमस्कार का तृतीय चरण को न भूलते हुये घुटनों का हाल-चाल पूछ लेते हैं। समय बदला है तो लगता है जैविक विकासक्रम ने मानव-शरीर का लचीलापन भी छीन लिया!
इस क्षण मुझे 'जिस देश में गंगा रहता है' के गोविंदा याद आ रहे हैं जो डैडी को दाढ़ी और मम्मी को मामी बोलते थे। समझदार भारतीयता के लिए ये काफी है जानने के लिए कि वे खो क्या रहें हैं और खो कहाँ रहें हैं? किसी सिनेमा में शाहरुख अपने पिता अनुपम खेर को 'पौप्स' बुलाते हैं। मतलब इस रिश्ते की पवित्रता को छिना है इस भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने। बुढ़ापे में एक गिलास पानी के लिए जिनके पिता तरसे होंगे अकेले, आज उनके सुपुत्र भी इंटरनेट से उन तक अपने जज़्बात पहुंचा रहे हैं। सोशल मीडिया पर जिंदा इन रिश्तों की बुनियाद को क्या फ़ादर्स डे, मदर्स डे मजबूत करेगा? क्या हमारे रिश्तें बाज़ार की वस्तुओं के विनिमय पर टिकी हैं? हम आज उपहारों से रिश्तें खरीदने में लगे हैं। बाज़ार की चकाचौंध में खो रही इस पीढ़ी ने खुद को अतीत से काट लिया है। आधुनिक होने की कसौटी पर खड़ा उतरने के लिए आयातित संस्कृति को सर्वोपरि मान लिया है। रिश्तों की चट्टानें दिन-ब-दिन पिघल रही है।
मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ सायास याद आ रही हैं -
हम कौन थे, क्या हो गयें
और क्या होंगे अभी?
आओ मिलके विचारे ये समस्या सभी।
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