शोर-शराबे के इस दौर में जब मनुष्य को अपनी व्यथा, खीझ, हर्ष ,विषाद का साझेदार नहीं मिलता, और तब उसकी इस संवेदना को शब्द का सहारा मिलता है। यहीं संवेदनात्मक उद्रेक सृजन का रूप लेती है। कागज़ और कलम, विचार , कल्पना व संवेदना से सानिध्य बनाते हुए साहित्य- सृष्टि की ओर बढ़ता है। सृजन की सोद्देश्यता कई स्तरों पर हो सकती है | जहाँ सभ्यता अपने विकासक्रम में संवेदनशून्यता की ओर बढ़ रही हो, जहाँ मौत आँकड़ो में तौली जा रही हो, जहाँ आदर्श और सच्चाई मज़ाक की वस्तु मात्र साबित हो रही हो; उस दौर में साहित्य की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मनुष्यता को बचाए रखने एवं मनुष्य को सहृदय बनाए रखने भर की है।
30 मई की आँधी ने बदली हिन्दू की तस्वीर |
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