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Friday, June 20, 2014

अच्छे दिन

कुतर्को की चादर आज भी बिछाई जा रही है
सत्ता के हर फ़ैसले की आरती गायी जा रही है

ये हर इक मुराद को माचिस दिखाएँगे देखो
जिनके वादों की बतिया बनाई जा रही है

कुछ तो ज़मीर, फटे जेब का ख़याल भी हो
आँख बस मूँद के भगवा सिलाई जा रही हैं

सबके पैरों में बवाई हीं फटेंगे अब तो
कीमतें रास्तों की जो बढ़ाई जा रही है

अपनी औक़ात है बस दंभ और दलीलों का
वहाँ संसद में बंदरिया नचायी जा रही है

अक्ल की आँख से तुम अपनी जहालत देखो
'अच्छे दिन' के शीशे में शक्लें दिखायी जा रही है


(आज भी 'वे' कुतर्क गढ़ेंगे नए-नए, क्यूंकि जीत 'उनकी' है पर जहालत के शिकार 'हम' ! )

Sunday, June 15, 2014

हैपी पौप्स डे


"फ़ादर्स डे" मनाने की खुमारी सर चढ़ के बोल रही है।  सुबह- सुबह फेसबूक पर किसी ने अपने फ़ादर के लिए लिखा था - 'You are my coolest dady'. पढ़ के लगा सच में डैडी हिमालय हीं होंगे। गणेश जी ने तो पिता को पर्वत मानकर हीं कार्तिकेय को हराया था और सब देवों से पहले पूजे जाने लगें। ले दे के पिता को कम समय में मूसक की सवारी करने वाले ने खुश कर दिया था। आज भी सारे सुपुत्र खुश करने में लगे हैं, अपनी सुविधानुसार अपने पापा, डैडी, पिता, पिताजी, बाबूजी, अब्बा, बाबा, पापाजी, डैड आदि को। किसी की लंबी सुनिश्चित प्लानिंग होगी इन्हें खुश करने की, बहुतों ने सोशल मीडिया के सहारे पीठ पीछे बधाई दी होगी। पर भावनाएँ हर सुपुत्रों की आज उफ़ान मार रही है। Happy Father's Day स्टेटस में ठेल दिएँ, 5-10 लाइक , 2-4 कमेंट आयें और पापा खुश! आज सुपुत्रों का मानना है कि टेलीपैथी के जरिये पापा तक खबर पहुँच हीं जाती है। 
पॉपुलर कल्चर ने क्या-क्या नहीं दे दिया हम नकलची इंडियंस को! 70 के दशक में पैदा हुये पिता ये संज्ञाएँ कैसे  पचाते होंगे? वे हीं जाने। बाउजी कहने वाले को डैड सुनना पड़ता है। हमारे संस्कारों की प्रविधि मे लगातार गिरावट आई है, जैसे रुपया कमजोर होता गया।  प्रणाम करने की विधि सूर्य नमस्कार के छठे चरण से सिमट कर, मुंह से नमस्ते ठोकने भर रह गयी है। फिर भी कुछ हैं जो सूर्य नमस्कार का तृतीय चरण को न भूलते हुये घुटनों का हाल-चाल पूछ लेते हैं। समय बदला है तो लगता है जैविक विकासक्रम ने मानव-शरीर का लचीलापन भी छीन लिया! 


सप्ताह के सात दिन अब काफी नहीं रहें, गजेटेड, रेस्ट्रिक्टेड हॉलिडे हो या न हो वालेंटाइन डे, मैरिज डे, बर्थ डे, मदर डे, फ़ादर डे आता हीं है। और तब बाज़ार हमें अपना गुलाम बनाती है। जो डीओ, आफ्टर शेव सबके इस्तेमाल का होता है उसे बाजार फ़ादर के इस्तेमाल भर के लिए बताता है। जो टीवी घर भर के लिए होता था उसको भी फ़ादर तक सीमित कर देता है बाज़ार। बाज़ार की गुलामी का सबब याद आता है, जब अपने बचपन में एक बच्चे की मौसी को उसे मार-मार के 'माई' से मम्मी बोलना सीखाते देखा था। माँ-माई में जो अपनत्व का भाव था वो मम्मी में है भी ? सुनने भर में तो न ही है। ऐसा लगता है पॉपुलर-कल्चर की लेप चढ़ा कर हम माँ को ज़िंदा रखना चाह रहे हों।
इस क्षण मुझे 'जिस देश में गंगा रहता है' के गोविंदा याद आ रहे हैं जो डैडी को दाढ़ी और मम्मी को मामी बोलते थे। समझदार भारतीयता के लिए ये काफी है जानने के लिए कि वे खो क्या रहें हैं और खो कहाँ रहें हैं? किसी सिनेमा में शाहरुख अपने पिता अनुपम खेर को 'पौप्स' बुलाते हैं। मतलब इस रिश्ते की पवित्रता को छिना है इस भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने। बुढ़ापे में एक गिलास पानी के लिए जिनके पिता तरसे होंगे अकेले, आज उनके सुपुत्र भी इंटरनेट से उन तक अपने जज़्बात पहुंचा रहे हैं। सोशल मीडिया पर जिंदा इन रिश्तों की बुनियाद को क्या फ़ादर्स डे, मदर्स डे मजबूत करेगा? क्या हमारे रिश्तें बाज़ार की वस्तुओं के विनिमय पर टिकी हैं? हम आज उपहारों से रिश्तें खरीदने में लगे हैं। बाज़ार की चकाचौंध में खो रही इस पीढ़ी ने खुद को अतीत से काट लिया है। आधुनिक होने की कसौटी पर खड़ा उतरने के लिए आयातित संस्कृति को सर्वोपरि मान लिया है। रिश्तों की चट्टानें दिन-ब-दिन पिघल रही है। 
मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ सायास याद आ रही हैं -
हम कौन थे, क्या हो गयें 
और क्या होंगे अभी? 
आओ मिलके विचारे ये समस्या सभी। 


Friday, June 13, 2014

कहाँ गयी पीपल की छईयाँ

सोंच, साधन, शिक्षा, रोजगार आदि को सभ्यता के गुणवत्तापूर्ण अपडेटेड वर्जन में ढालने के लिए लोग 'घर' छोड़ शहरों को आते हैं। पर जब-जब शहर की तपती फिज़ाओं ने इन्हे झुलसाया, बेमुरौअत इंसानियत ने रुलाया तब-तब अनायास मुंह से निकल जाता है ..."अपना गाँव कितना अच्छा है!" जिसने गाँव छोड़ा है अपने लिए, अपनों के लिए, उनके पीछे कोई अपना-सा लगने वाला 'गाँव' तो है यादों में! पर उनका क्या, जिनका गाँव हीं आज शहर बना हुआ है?  उनका क्या जो शहर में हीं पैदा हुए, बोर्न बीटा  पी के बड़े हुए और पूरी जवानी कूलर -एसी  की हवा खा के और मेट्रो  की चाल में चलकर काटी हो? उनके यादों में कोई गाँव नहीं होता.....होता है कोई जापानी पार्क , कोई लोटस टेंपल , नैनीताल , शिमला  जो उनका अपना कभी नहीं होता बस अभाव और ख़ास किस्म की बेचैनी में शहर से बेहतर लगता है।
हम पौराणिक रीति-गीति को शहर में रहकर भी ढोना नहीं भूले हैं। दीवाली में भले हीं तेल व घी के दीये की जगह रंगीन बत्तियाँ जलाते हों, भले रोज़े की इफ़तारों में सब मिल-बैठ रोज़ा तोड़ने की जगह अंधेरी कोठरी में कुछ भूनकर खा लेते हों, दशहरे के मेले में नटुआ  का नाच न देखते हों, किसी ताल-तलैया के अभाव में प्लास्टिक की टब में भरे पानी से हीं छठ पर्व  के अर्घ्य दे देते हों, ढ़ोलक की थाप पर फिल्मी गीतों को हीं शादी के रश्मों में गाते हों ....पर हर कदम पर गाँव को ज़िंदा रखने की कोशिश करते जरूर हैं। शहर हमें पग-डंडी की जगह पक्के फूटपाथ , मिट्टी तेल से टिमटिमाती डिबिया  की जगह चौंधियाने वाली रोशनी उगलते बल्ब , बैलगाड़ी  की जगह मेट्रो , खुले-पसरे खेतों  की जगह पार्क और समाज  के नाम  पर मै  का का भाव देता है। अक्सर इन्हीं फूटपाथ, पार्क और बिजली-बत्तियों ने रोजगार के नाम पर ख़ून-पसीना बहाने शहर आए गाँववालों को रहने का ठिकाना दिया है। सुबह-सुबह या देर रात शहर के हर फूटपाथ पर दिखता है एक गाँव।
दही जमाने के लिए पड़ोस से जोरन  मांगता है गाँव, खाना पका लेने पर पड़ोस की दादी के लिए एक कटोरी बनी तरकारी भेजता है गाँव, किसी के भैंस के बच्चा देने पर सारे पड़ोसी को खीर खिलाता है गाँव, जब माँ खाना बनाती है तो तवे के पास आंटे से बनी चिरईयों को निगलने की आस में बच्चों-सी टकटकी लगा के बैठता है गाँव, मस्जिद से दिए अज़ान पर एक साथ उठकर  सेहरी  खाता है गाँव, भाई-दूज पर रेगनी  के काँटो को जीभ में चुभो कर भाई के लम्बी उमर की दुआ करता है गाँव, बैलगाड़ी पर सवार हो मेला देखने जाता है गाँव, सास-ननद; देवर-भौजाई के रिश्तों की ठिठोली है गाँव, चटाई पर बैठ डफली बजा बड़े-बूढ़ों की गायी होरी  है गाँव, नयी दुल्हन की मुँह-दिखायी  के लिए अगुताई औरतों की जमात है गाँव, पावन मौकों पर गाय के गोबर से लिपी अंगनाई है गाँव, खाट पर अंगराई लेते बाबा की तरुणाई है गाँव।
गाँव जहां समष्टि की सोंचता है, वहीं शहर व्यष्टि की। वहाँ एक की बेटी सबकी बेटी होती है, एक जी इज्ज़त पूरे गाँव की। शहर इन खयालातों से भी अनजान है, जहाँ गाँव की आत्मा एक घने-अंधेरे कमरे में बंद बस अपनी हीं सोंचता है। पर आज गाँव मड़ई की छाया से निकल छतों में रातें काट रहा है, हल-बैल को ट्रैक्टर ने पता नहीं कहाँ गायब कर दिया है, दौनी-ओसौनी का जिम्मा आज थ्रेसिंग मशीनों ने ले लिया है, दादी की कहानियाँ कहीं खो गईं हैं, गुड्डे-गुड़ियाँ प्लास्टिक की हो गईं हैं।  यादों की ओट में छिपते जा रहे गाँव को हमारे आने वाली पीढ़ी तक कौन पहुंचाएगा? मदर-डेयरी का दूध पीते बच्चें गाय-भैंस को कैसे जानेंगे, कैसे जानेंगे, पीपल-बरगद-आम के पेड़ो को? कैसे जानेंगे कि चावल पर छिलका भी होता है जिसे धान कहते हैं? कैसे जानेंगे कि मम्मी कभी माई , पापा कभी बाबूजी  हुआ करते थें? बस किताबों से, अजायबघरों से, बोटानिकल गार्डन से ....! क्या गाँव में बसने वाली इस देश की सभ्यता संस्कृति अब संग्रहालयों, अजायबघरों और किताबों में सिमट जाएगी?  

Thursday, June 12, 2014

मेखला में लिपटा मिश्मी रिवाज़

         
वसंत का मौसम आने वाला था। एन॰एस॰एस॰ द्वारा चलाई गयी एक मुहिम यूथ टू दि एज़ के तहत मैं 22 फरवरी 2012 को भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश के लिए रवाना हुआ। इस मुहिम का मक़सद ये था कि हम भारत की सीमाओं के रहन-सहन, रीति-रिवाज़, वातावरण से समन्वय स्थापित कर सकें। यात्रा कुल मिलाकर पंद्रह दिनों की थी, परंतु पाँचवा दिन मेरे स्मृति-पटल पर एक अविस्मरणीय अनुभव छोड़ गया। अरुणाचल के एंजाओ जिले मे पर्वतों से घिरा हुआ हमारा बसेरा था। फेसबुक, इंटरनेट, मोबाइल इन सब से दूर करती वहाँ की तकनीकी रूप से अभावग्रस्त ज़िंदगी ने क्या-क्या दिये इसे फिलहाल न बताते हुए मैं सीधे चलता हूँ यात्रा के पाँचवे दिन की ओर।
     पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के तहत हमे निकट के एक गाँव जाना था। पैदल चलकर हम अपने गंतव्य तक पहुँचे। उस गाँव का नाम था- ताफ़्रालियांग। गाँव के ज्ञात परिभाषा से पूर्णत: भिन्न था ताफ़्रालियांग। हमारी टोली पहले उस गाँव के इकलौते शिक्षा-केंद्र माध्यमिक विद्यालय में पहूँची। वेश-भूषा और चेहरे की बनावट में भिन्न हमलोग वहाँ के बच्चों के लिये नस्ली रूप में आयातित हीं थे। सब देख कर भौंचक्के थें। हमने सबसे बात करने की कोशिश की, परंतु भाषा न तो उनकी हमारे पल्ले पड़ी, न हमारी उनके। अंतत: जानने की प्रक्रिया में वहाँ के शिक्षक हमारे काम आये। उस विद्यालय मे कुल आठ कक्षाएं व सात शिक्षक थें। जंगल में जैसे लहसून का एक छोटा-सा खेत हो, उसी तरह प्रकृतिक सुषमा के बीच बसा था ताफ़्रालियांग। पता चला की वहाँ की प्राथमिक भाषा अंग्रेज़ी व दूसरी भाषा हिन्दी है। समझ में नहीं आ रहा था की हिन्दी दूसरे नंबर पर जीवित थी तो थी कैसे? बाद मे पूछताछ के दौरान पता चला की ये देशप्रेम था जिसने चीनी घुसपैठी हमलों के बावजूद हिन्दी को ज़िंदा रखा। सुविधाओं के नाम पर वहाँ कुछ भी नहीं था। 250 लोगों की कुल जनसंख्या वाले ताफ़्रालियांग में एकमात्र माध्यमिक विद्यालय था, जिसके शिक्षक रोजगार की मजबूरी में शिक्षण कार्य कर रहे थें। इसके अलावा न तो कोई चिकित्सा-केंद्र था न ही कोई और सार्वजनिक सुविधा।
     ख़ैर हम पाँच लोगों की एक टोली बनाकर अलग-अलग परिवारों के साथ उनके घरों को गए। पहाड़ पर जैसा कि पाया जाता है –घर अस्थायी होते हैं। ईंट-पत्थर, सिमेन्ट, सरिया के न के बराबर प्रयोग से बनी, लकड़ी के खंभों पर टिकी थी उन घरों की नींव। इसके पूर्व जो घर मैंने देखे थे उनमें दूसरी मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियाँ प्रयोग की जाती थी, परंतु यहाँ घर में प्रवेश हेतु सीढ़ियाँ थीं। घर में प्रवेश करते हीं मै एकदम-से सकपका गया। दरवाज़े के अंदर शुरू होती थी अधजली खोपड़ियों से सुसज्जित दीवार। सुनार जैसे दुकान में आभूषणों को नकली काले गर्दनों पर टिका कर रखते हैं, ठीक वैसे हीं सजा रखा था उन्होनें पूरी दीवार को जानवरों के काले खोपड़ियों से। उसके ठीक विपरीत चौड़ी-सी जगह में अलाव लगा हुआ था। मोटे-मोटे अधजले लकड़ियों के ऊपर छप्पर के सहारे रस्सी से लटकी थी तसली, जिसमें वे भोजन पकाते थे। यह दृश्य अनायास बीरबल की खिंचड़ी पकाने के अंदाज़ की याद दिला गया था। उनके वहाँ वे चूल्हे नहीं थे जहां आंच लगाने के लिए जलावन को चूल्हे के मुँह के अंदर धकेलना पड़ता है। आगे बढ़ते हुए दीवार के सहारे लटकी एक बाँस की सुंदर-सी टोकड़ी पायी जिसमें बहुत सारी पतली, सफ़ेद रस्सियाँ रखी हुई थी। हालांकि ये ज्यादा भिन्न तो थी नहीं, पर सवाल हर कदम पर थें। जिज्ञासा में हम पूछ बैठे कि ये धागे इतने अलग ढंग से क्यूँ रखे हुए हैं? तब पता चला कि उनकी जनजाति में विशेष आयोजनों पर निमंत्रण-पत्र स्वरूप ये धागे भेजे जाते हैं। धागों में लगी गांठें आमंत्रित जनों कि संख्या को दर्शाती थी। तकनीकी रूप से अभावग्रस्त उस गाँव में मोबाइल था; पर नेटवर्क 5 कि॰मी॰ नीचे आकर मिलता था, टाटा स्काई था; तो बिजली महीने में यदा-कदा बत्तियाँ जला जाती थी। खैर, हम घर के अंदर बैठें और परिवार के सारे सदस्यों से घिरकर गप्पों में गोता लगाने लगे।
अरुणाचल प्रदेश में कुल अठारह जनजातियाँ हैं और सब के सब हिन्दू धर्म को मानने वाले हैं। हमारा परिचय जिस परिवार से हुआ था, वे मिश्मी जनजाति के दो उपजातियों में से एक डिगारु मिश्मी थे। बाद में जब इंटरनेट के माध्यम से मिश्मी को जानने कि कोशिश कि तो पता चला कि डिगारु नाम कि नदी के किनारे बसने वाले मिश्मी डिगारु मिश्मी कहलाएँ, तो ऊँचाई पर; पहाड़ों पर रहने वाले मिश्म, इदु मिश्मी कहलाएँ।
दिल्ली जैसे शहर में रहकर कोई अरुणाचल प्रदेश जाए, तब पता चलता है ज़िंदगी इतनी भी आउटडेटेड हो सकती है! वैश्वीकरण ने वहाँ कोक, पेप्सी तो पहुँचा दिया था परंतु देश-दुनिया को जानने के लिए अख़बार दो दिन बाद मिलते थे। परिवहन के नाम पर अरुणाचल परिवहन कि दो-चार बसें चलती थीं उस रूट से। हालत ये थी कि ताफ़्रालियांग के लोग चिकित्सा हेतु 7 कि॰मी॰ दूर हायुलियांग जाते थे। वो भी बस मिल जाए तो ठीक वरना पैदल। जनसंख्या का घनत्व इतना कम था कि हम जहाँ थे वहाँ मात्र चार परिवार बस्ते थें। मतलब एक गाँव पूरा करने के लिए क्षेत्रफल बहुत हीं बड़ा करना पड़ता था। उससे अगला गाँव 4 कि॰मी॰ दूर था। परिवार के सदस्यों से पता चला कि वहाँ नेता बस वोट माँगने भर आते हैं। एक-एक वोट वहाँ पैसों से बिकते थे। गाँव का प्रधान उम्मीदवार से मोटरसाईकल वगैरह पा जाता था और गाँव वालों को किसी ख़ास उम्मीदवार को वोट देने के लिए विवश करता था। गरीबी इतनी थी कि वोट के नाम पर उम्मीदवारों से प्राप्त ₹5000, ₹10,000 उनके लिए लोकतन्त्र की मर्यादा से कहीं ऊपर था।
खैर, हमने उनकी रीति-रिवाजों को जानने की कवायद शुरू की। घर की सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त हीं दायीं ओर एक बाँस की झुरमुठ के ऊपर टोकरी में ढ़के मुर्गे-मुर्गियों के पंख दिखे थे। पता चला कि मिश्मी कोई भी शुभ-कार्य, अनुष्ठान करने से पहले पक्षियों कि गर्दन मड़ोड़ उस टोकरे में रख देते थे ताकि ख़ून रिसता रहे। उनकी मान्यता थी कि उनके ईष्ट-देव शान इन मून उस रक्त को पी जाते हैं। घर में हमने अनोखे धारदार हथियार देखेँ, जिसका प्रयोग वे जंगलों में या तो शिकार हेतु या लकड़ियाँ काटने में करते थे। छः साल का बच्चा भी अपनी कद-काठी के अनुसार कमर में वो दाव लटका के चलता था। उनका एक ही बड़ा त्योहार होता था, जिसे तामलाडू कहते हैं। फरवरी 14 और 15 को रोमन कैलेंडर के अनुसार इसे मनाया जाता है। समाज के सारे स्त्री-पुरुष हाथ में हाथ डालकर अनूठे; नृत्य के पहाड़ी तरीके से पैर को आगे-पीछे करते, गोल-गोल घूमकर नृत्य करते थे। पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ भारत के किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों के इस कदर सारे रीति-रिवाजों में समान रूप से शरीक होने की बात सामने नहीं आती है। आभूषण चाँदी के थे, पर अपनी बनावट व नक्काशी में दक्षिण भारतियों से कहीं पीछे नहीं थे। ताज्जुब तो तब हुआ जब चाँदी के बने एक पात्र को देखा जिसके इस्तेमाल धूम्रपान के लिए होता था। आज भी सामान्यातः इलीट कहे जाने वाले लोग हीं वैसे पात्र का इस्तेमाल करते हैं। औरतें मेखला पहनती थी जो दक्षिण भारतियों वाले लूँगी की तरह पहना जाता है।
मिश्मी के रंग-ढंग
सबसे अनूठा व रोचक था उनकी वैवाहिक परंपरा। मिश्मी अपने दहेज के अद्वितीय रिवाज़ के लिए प्रसिद्ध है। वहाँ दूल्हे के पिता को शादी से पहले लड़की के परिवार के सारे पुरुषों को एक-एक मिथुन देना पड़ता है। मिथुन भैंसे की एक प्रजाति जिसके सींग काफ़ी मजबूत व शरीर बलिष्ट होते हैं। उसका प्रयोग खेती के कार्यों में होता है। जो परिवार ज्यादा समृद्ध होता है, वो लड़की के चाचा, फूफा, मौसा तक को मिथून देता है अपितु पिता और भाई को देना तो अनिवार्य हीं था। इसके साथ हीं लड़की के परिवार को पानी-खेती अर्थात धान के खेत मिलते हैं लड़के वालों की ओर से। जहाँ दहेज से पूरा भारतीय समाज अभिशप्त है वहीं पूर्वोत्तर के राज्यों में इस कुप्रथा के विपरीत लड़कों से मिथुन लेता है। एक से बढ़कर एक रोचक जानकारियाँ मिलती गईं। इस दौरान यह भी पता चला कि प्रेम में पड़कर अगर कोई युवक किसी युवती कि भगाकर शादी कर लेता है, तो उसे किसी खाप का सामना नहीं करना पड़ता है। अपितु जब लड़के का पिता लड़की के परिवार के हर सदस्य को दो-दो मिथुन दे और साथ हीं लड़के के हिस्से में आने वाले खेतों का आधा हिस्सा लड़की के नाम हो जाती है, तब समाज उस दंपति को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। यह है एक ख़ास बात मिश्मी की। मिश्मी समाज में दहेजा का स्वरूप अलग है और ये अभिशाप नहीं वरदान है। अंततः हम फिर से उन खोपड़ियों के बीच से बाहर आए।
मन अशांत था, फिर भी शांत था। जहाँ समाज इतना अभावग्रस्त था, वहीं पर्यटन व तकनीक से दूर अरुणाचल अपनी संरचना की पवित्रता में पूर्ण प्राकृतिक था। प्रदूषण शब्द अस्तित्वविहीन लगता है वहाँ। मन तो सूर्य की पहली किरण में नहाने वाले उस भूमि पर बस जाने को कहता रहा, परंतु ये संभव नहीं था। पहाड़, बर्फ, ठंडे-मीठे जल वाली कलकल करती नदियाँ, घुमड़-घुमड़ के बनते बादल, सर्द हवाएँ, कमर में दाब लटकाए मिश्मी, मेखला में लिपटी पूर्वोत्तर की अनन्य सुंदरता आज भी मुझे वापस बुलाती है, इस शहर की झुंझलाहट से दूर। 

Saturday, June 7, 2014

जड़-धर्म

हमारा सामाजिक ढांचा उन खुबसूरत दरख्तों की तरह है जिनकी जड़ें धरातल के अंदर दबी होती हैं। जिसके ऊपर-ऊपर ऋतुओं के पालने में जवान होती पत्तियाँ हैं ,फूल हैं, फल हैं,पवन की सनसनाहट पर झूमती टहनियाँ हैं।  इन्हे रौशनी भी मयस्सर है और फिज़ा की बदलती मौसमें भी पर उन जड़ो का क्या जिसने चमन की खुबसूरती को अपने सर पे उठा रखा है ?  अँधेरे में दबे उन पोषकों का क्या जो खुद को जमीन में दिन-ब-दिन केवल इसलिए धँसाएँ जाते हैं कि ऊपर वाले आकाश की ओर बढ़े; भले हीं उसकी फुनगी पर बैठ कोई दुनिया भी न देख पाता हो ! इन जड़ों की किस्मत भी उन अंधी माताओं के जैसे हैं जो बच्चे को जन्म देती है ; जान से बढ़कर प्यार देती है पर उसकी सूरत देखने की अभिलाषा में जिसका अस्तित्व हीं आशंका के घेरे में है उसे ख़ुदा को कोसती रहती है। पर ये जड़ें तो मूक-सजीव हैं।  किसे कोसेंगी ये ,किस मुह से ? सच तो यह है कि इनके अंदर किसी तरह की अशान्ति, दुख, वैमनष्य, असंतोष या हीनता का भाव ही नहीं है। इन्होनें कभी ऊपर आने की कोशिश ही नहीं की। अब जिसने दब के ऊपर वाले को सींचना अपनी नियति मान लिया हो उसकी चिंतन-परंपरा के ऐसे रूढ़ियों को भला कोई मार्क्स भी कैसे बदल सकता है! बीज जब अंकुरित होता है तो जड़े सबसे पहले निकलती हैं। पर ऐसे पदार्पण का क्या मतलब जब बाद में उपजने वाला तना उसका शोषण कर ऊर्ध्वार्धर बढ़ता हीं जाता है। शायद हीं किसी वृक्ष की जड़े उसके तने से बड़ी होता हो! होती हीं नहीं होंगी ,अब जड़ों के परंपरागत मूल्यों की रक्षा वें न करें तो कौन करेगा! कभी-कभी तो उनके ही दर्जे के कीड़े-मकोड़े उन्हें खोखला कर देते हैं। जहां तना अपने उपांगों के साथ फूल-पत्तियों से ,सुंदर छाल से अलंकृत हो सभ्य होने की मिसाल पैदा करता है वही ये दमित जड़ें आज भी निर्वस्त्र-नग्न तल के नीचे निश्चिंत हों पड़ी हैं। प्रकृति ने पक्षी, फूल और स्त्री को सबसे सुंदर व मनमोहक बनाया। जड़ों का संबंध परस्पर फूल और पक्षी दोनों से है परंतु प्रकृति की इन सुंदरता के ये रक्षक कभी इनके सौंदर्य का स्वाद भी न जान पाएँ! ' दुष्यंत कुमार' ने तो कह दिया कि

            " कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हों सकता
                    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों । "    

पर इनकी तबीयत ठीक कौन करे? 'जड़-चेतन' को तो हमने बचपन से हीं विपरितार्थक के रूप में जाना है। अब भला व्याकरणिक संशोधन की नौबत आने का कारण ये भले 'जड़' क्यूँ बनें ? कितनी जिम्मेदारियाँ हैं न इनके ऊपर ! व्याकरण की मान रखनी है, शोषकों को पोषण देना है, असूर्यम्पश्या के धर्म का निर्वाह करना है और सदा नीचे रहना है । आकाश किसी और का ,फिज़ाएँ किसी और के हिस्से में, बारिश की फुहारें किसी और के लिए, मौसमों का मिज़ाज किसी और के हिस्से हम यथावत बने रहेंगे। बारिश का कुछ जल रीस-रीस के उस तक पहुँच पाया तो ठीक वरना कोई आपत्ति न पहले हुई ना आज होती हैं। बस साश्वत शोषित-धर्म का पालन करना हीं इनकी ज़िंदगी का मकसद है। जियो भाई जियो जैसे जीना है जियो , जड़ हीं बने रहो क्यूंकि चेतना को तो तुमने पादप शरीर-रचना (Anatomy) के विपरीत न जाकर शोषकों को सौंप दिया है ! पर दुनिया तुम्हें गुरुत्व के विरुद्ध ऊपर उठते देखना चाहती है । कभी तो सोंचो कि तेरे हिस्से कि धूप कौन खा रहा है?  कब से जड़ हो !....... अब तो चेत जाओ !  

किसका हिस्सा ??

शोर-शराबे के इस दौर में जब  मनुष्य को अपनी व्यथा, खीझ, हर्ष ,विषाद का साझेदार नहीं मिलता, और  तब उसकी इस संवेदना को शब्द का सहारा मिलता है। यहीं संवेदनात्मक उद्रेक सृजन का रूप लेती है। कागज़ और कलम, विचार , कल्पना व संवेदना से सानिध्य बनाते हुए साहित्य- सृष्टि की ओर बढ़ता है। सृजन की सोद्देश्यता कई स्तरों पर हो सकती है | जहाँ सभ्यता अपने विकासक्रम में संवेदनशून्यता की ओर बढ़ रही हो, जहाँ मौत आँकड़ो में तौली जा रही हो, जहाँ आदर्श और सच्चाई मज़ाक की वस्तु मात्र साबित हो रही हो; उस दौर में साहित्य की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मनुष्यता को बचाए रखने एवं मनुष्य को सहृदय बनाए रखने भर की है।  
30 मई की आँधी ने बदली हिन्दू की तस्वीर 

Friday, June 6, 2014

बिन तेरे

बिन तेरे मुझपे अँधेरे का असर होता है
अश्क की धार में जीवन का सफ़र होता है

कोई छुपने की जगह हो तेरे कूचे के तले
तेरा दीदार हो ऐसे न बसर होता है

तुझे निहारते ख़्वाबों में तसव्वुर मेरे
कब ढ़ले शाम, कब जाने सहर होता है

कभी चिराग जो साये को छेड़ती है तेरे
मेरे साये से ज़ुदा नूर-ए-नज़र होता है

मै तेरे वास्ते गलियों से जब गुजरता हूँ
किसी के हाथ से पथराव का डर होता है


( 28/12/2011 )

Wednesday, June 4, 2014

तमन्ना-ए-दस्त

सिसकियों में हीं पलती है तमन्ना-ए-दस्त यार
इस शहर के आब-ओ-हवा में कुछ तो है अलग ।

अब बेजुबान है खड़ी गुलशन की हर कली 
ऊपर से किसी मौत का आना तो है अलग । 

बेचैन हो सूखे हलक का पानी ढूँढना 
लब तक पहुँच के ज़ाम का गिरना तो है अलग।

महफ़ूज दफ़न होतीं हैं विराने में खुशियाँ 
पर ज़िंदगी का आँसू बहाना तो है अलग । 

अब कौन है किसकी सुने सब धुन मे है अपने 
इस दौर में अफसानों का गाना तो है अलग । 






( आत्महत्या की बढ़ती वारदातों के ऊपर, 1/5/2013 )