CBSE के 12 वीं के परिणाम आ चुके हैं । ग्रेजुएट होने के लिए विद्यार्थी लालायित हैं कि बस दाखिला मिल जाए । दिल्ली विश्वविद्यालय पर्सेंटेज के आधार पर दाखिला देती है । सुनने मे आया है इस बार ऑल इंडिया सीबीएसई टॉपर ने 500 में से 498 अंक लाया हैं। 2 नंबर कम रह गया बस वरना ईश्वरीय संपूर्णता कि परिभाषा झूठी साबित कर जाते ये! खैर जिस शिक्षा-व्यवस्था का कोई अजेंडा ही न हो ,वहाँ 2 अंक कम रह जाने का ग़म लाज़मी है। थोड़ा दुख हमें भी है ,आखिरकार " ए ह्यूमन विदाउट अर्र" ( अर्थात सम्पूर्ण मानव ) के दर्शन से वंचित रहना पड़ा । 12 वीं के अंक किसी भी तरह हमारे कैरियर से कोई ख़ास लेना-देना नही होता । ये तो एक कड़ी है जो विद्यालय के थोपे अनुसाशनिक व्यवस्था से बाहर विद्यार्थियों को महा-विद्यालय के खुले वातावरण तक पहुंचाता है । मेरे ख़्याल में अंको कि सुंदरता इतनी हीं भर है । हमारी शिक्षा-व्यवस्था अप्रत्यक्ष रूप से सामंतवादी सोंच से सिंचित है जहां पाठ्यक्रम हमें ये अवकाश नही देती कि हम अपने परिवेश की परिस्थितियों के प्रति कोई प्रतिक्रिया भी दे पाएँ । संसोधित पाठ्यक्रम ने जैववैज्ञानिक विकास के मद्देनजर मानव मस्तिष्क को कुछ ज़्यादा हीं उर्वर समझ लिया , परिणामस्वरूप एक वर्ष की सामग्री को 3 महीने के साँचे में ढाल दिया। साशन-प्रसाशन के लिहाज़ से यह कदम इतना कारगर सिद्ध हुआ कि 'छात्र-आंदोलन' नामक दुर्घटना के घटने की संभावना ही न रही। अमेरिका के स्कूलों को देखें तो आए दिन कोई बच्चा पिस्टल के आविष्कार के पीछे के ध्येय को गलियाते हुए 10-20 सहपाठियों को एक साथ ठोक देता है । जापान की स्थिति ये है कि स्कूली स्तर पर सबसे ज़्यादा आत्मदाह होते हैं। अब तक हमारा भारत इस शैक्षणिक-व्यवस्था के दुष्परिणामों से बचा हुआ है ,परंतु भविष्य कुछ ज़्यादा उज्ज्वल नहीं है ! विश्वविद्यालयी व्यवस्था का हाल आज ये है कि 3 घंटे कि परीक्षा में 1 घंटे आप परीक्षा-कक्ष में बिताओ , पूर्णांक 100 में से 35 अंकों के प्रश्नो को हल करने कि कोशिश करके आओ , और पता चलता है कि अंक 65 आ गए । कभी कभी तो भरोसा दूसरे लोग दिलाते हैं कि ये आपका हीं प्राप्तांक है जनाब । कृपा कहाँ से बरसती है इसका अंदाज़ा लगाना विद्यार्थियों के लिए भी पहेली-सा हो जाता है। शिक्षित-बेरोज़गार बनाने वाली ये व्यवस्था भारत को दुबारा ग़ुलाम बनाने की एक सफल कोशिश-सी लगती है। 95% अंक तो अंकों की सामाजिक व्यवस्था में निम्न मध्य-वर्ग से प्रतीत होतें हैं , तो 97% अंक वाले उच्च मध्य-वर्ग की श्रेणी को सुशोभित करते दिखते हैं। इससे ऊपर वाले एलिट क्लास में आते है जिनकी संख्या फ़िलहाल कम हीं है। ये जो एलिट क्लास अंक वाले हैं वो दिल्ली विश्वविद्यालय के 100% कट-ऑफ में एड्मिशन पातें हैं। अकथित तौर पे आरक्षण इसे ही कहते हैं । अब होड़ एक हीं बात की रह जाती है या तो एलिट क्लास अंक लाओ वरना दमित-कुचलित श्रेणी में लैक्चर की जगह फोटोकोपी एवं श्रुतिलेख के सहारे डिस्टिंशन पाके बी॰ए॰पास कहलाओ ।
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Friday, May 30, 2014
पढ़ले 'अंक' आएंगे !
CBSE के 12 वीं के परिणाम आ चुके हैं । ग्रेजुएट होने के लिए विद्यार्थी लालायित हैं कि बस दाखिला मिल जाए । दिल्ली विश्वविद्यालय पर्सेंटेज के आधार पर दाखिला देती है । सुनने मे आया है इस बार ऑल इंडिया सीबीएसई टॉपर ने 500 में से 498 अंक लाया हैं। 2 नंबर कम रह गया बस वरना ईश्वरीय संपूर्णता कि परिभाषा झूठी साबित कर जाते ये! खैर जिस शिक्षा-व्यवस्था का कोई अजेंडा ही न हो ,वहाँ 2 अंक कम रह जाने का ग़म लाज़मी है। थोड़ा दुख हमें भी है ,आखिरकार " ए ह्यूमन विदाउट अर्र" ( अर्थात सम्पूर्ण मानव ) के दर्शन से वंचित रहना पड़ा । 12 वीं के अंक किसी भी तरह हमारे कैरियर से कोई ख़ास लेना-देना नही होता । ये तो एक कड़ी है जो विद्यालय के थोपे अनुसाशनिक व्यवस्था से बाहर विद्यार्थियों को महा-विद्यालय के खुले वातावरण तक पहुंचाता है । मेरे ख़्याल में अंको कि सुंदरता इतनी हीं भर है । हमारी शिक्षा-व्यवस्था अप्रत्यक्ष रूप से सामंतवादी सोंच से सिंचित है जहां पाठ्यक्रम हमें ये अवकाश नही देती कि हम अपने परिवेश की परिस्थितियों के प्रति कोई प्रतिक्रिया भी दे पाएँ । संसोधित पाठ्यक्रम ने जैववैज्ञानिक विकास के मद्देनजर मानव मस्तिष्क को कुछ ज़्यादा हीं उर्वर समझ लिया , परिणामस्वरूप एक वर्ष की सामग्री को 3 महीने के साँचे में ढाल दिया। साशन-प्रसाशन के लिहाज़ से यह कदम इतना कारगर सिद्ध हुआ कि 'छात्र-आंदोलन' नामक दुर्घटना के घटने की संभावना ही न रही। अमेरिका के स्कूलों को देखें तो आए दिन कोई बच्चा पिस्टल के आविष्कार के पीछे के ध्येय को गलियाते हुए 10-20 सहपाठियों को एक साथ ठोक देता है । जापान की स्थिति ये है कि स्कूली स्तर पर सबसे ज़्यादा आत्मदाह होते हैं। अब तक हमारा भारत इस शैक्षणिक-व्यवस्था के दुष्परिणामों से बचा हुआ है ,परंतु भविष्य कुछ ज़्यादा उज्ज्वल नहीं है ! विश्वविद्यालयी व्यवस्था का हाल आज ये है कि 3 घंटे कि परीक्षा में 1 घंटे आप परीक्षा-कक्ष में बिताओ , पूर्णांक 100 में से 35 अंकों के प्रश्नो को हल करने कि कोशिश करके आओ , और पता चलता है कि अंक 65 आ गए । कभी कभी तो भरोसा दूसरे लोग दिलाते हैं कि ये आपका हीं प्राप्तांक है जनाब । कृपा कहाँ से बरसती है इसका अंदाज़ा लगाना विद्यार्थियों के लिए भी पहेली-सा हो जाता है। शिक्षित-बेरोज़गार बनाने वाली ये व्यवस्था भारत को दुबारा ग़ुलाम बनाने की एक सफल कोशिश-सी लगती है। 95% अंक तो अंकों की सामाजिक व्यवस्था में निम्न मध्य-वर्ग से प्रतीत होतें हैं , तो 97% अंक वाले उच्च मध्य-वर्ग की श्रेणी को सुशोभित करते दिखते हैं। इससे ऊपर वाले एलिट क्लास में आते है जिनकी संख्या फ़िलहाल कम हीं है। ये जो एलिट क्लास अंक वाले हैं वो दिल्ली विश्वविद्यालय के 100% कट-ऑफ में एड्मिशन पातें हैं। अकथित तौर पे आरक्षण इसे ही कहते हैं । अब होड़ एक हीं बात की रह जाती है या तो एलिट क्लास अंक लाओ वरना दमित-कुचलित श्रेणी में लैक्चर की जगह फोटोकोपी एवं श्रुतिलेख के सहारे डिस्टिंशन पाके बी॰ए॰पास कहलाओ ।
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