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Sunday, August 3, 2014

डायरी के पन्ने से...

अपनी संरचना के हरेक  पहलू  में मधुर संगीत का आभास लिए मै एक अनछुआ अहसास था.....वीणा। किसी ने भी मेरे तंतुओ को छेड़ा नहीं था, तंबूरे को हाथ तक नहीं लगाया था। फिर भी अपने आवरण को सात्विक अहसास देने में मै सक्षम था। काल, उम्र, परिवेश की गनीमत कहिए या अपने को न छेड़े जाने की हीन-ग्रंथि ...मैंने खुद को उस बाज़ार को समर्पित करना उचित समझा जहां ऐसे साज के खरीददार मुंह बाए खड़े थे। अपने तारों को छेड़ने का निमंत्रण कईयों को दिया मैंने। सबने अपने आंतरिक आरोह-अवरोह के हिसाब से मेरे तंतुओं को कसा। तब मै खामोश रहा कि कोई तो उसकी नयी उपयोगिता सिद्ध करेगा। बार-बार मै ताल और राग के अनुसार बदला गया।
 
सबको सुकून पहुँचाता आज वीणा रो रहा है। उस आरोह-अवरोह को पाने के दौर मे कसे गए तारों का अस्तित्व नष्ट हो गया, वह टूट गया! अब न उसमे संगीत है, न जान। बस खोखला तंबूरा...शून्य में शून्य-सा। अपने परिवेश को पवित्रता के आवरण से ढकने वाला आज अपने साधकों की नज़र में बेजान है, बेकार है। शायद अपनी पवित्रता खो चुका है! अस्तित्व के इस देहावसान का जिम्मा कौन उठाएगा...मेरे तन्तु, मुझे छेड़ने वाले या खुद मै? 
सवाल अन्नुत्तरित रहेंगे हमेशा क्यूंकि भावनाओं की अदालत में दलीलें नहीं पेश की जाती हैं और बिना दलीलों के अदालती कार्यवाई नतीजे तक नहीं पहुँचती। 

18/3/2013
11:30 PM

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