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Monday, August 18, 2014

'आ' की भूमिका

हमारे सामाजिक व्यवस्था की नीव बहुत पुरानी है। इसके नीति-निर्माताओ ने लगभग सारे नामकरण पुरुषवादी मानसिकता से गुजर कर ही किया। भारतीय समाज की जड़े पाश्चात्य मूल्य-बोध के लगातार घुसपैठ के बावजूद अपनी पारिवारिक संरचना की पवित्रता की वजह से संगठित, मजबूत और भारतीय सांस्कृतिक मूल्य-बोध को आत्मसात किए हुये है। हमारे पारिवारिक संरचना की पवित्रता के मूल मे हमारे रिश्तें है। हमारे संस्कार, नैतिकता, मूल्य-बोध इन्हीं रिश्तों के बंधन में उलझ कर अपने पतन को रोक पाती है। पिता-माता, चाचा-चाची, दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी की संज्ञा वाले ये 'अपने' हीं हमे परिस्थितियों के अनुकूल रोकते, टोकते, डांटते या प्रोत्साहित करते है। आज टूटते बिखरते भारतीय मूल्य-बोध को रिश्तों ने संभाला है, या यूं कहें कि जहां तक संभल पा रहा है वहाँ रिश्तों की भूमिका हीं प्रामाणिक है। 
भाषा-विज्ञान ने अपने वैज्ञानिक परीक्षण से यह साबित कर दिया है कि 'आ' ध्वनि की मारक क्षमता सबसे ज्यादा है या कह ले कि ये दूरगामी असर करता है। मनुष्य होने की प्रामाणिकता को पुष्ट करने वाला तत्व संगीत में सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाली ध्वनि भी 'आ' हीं है। शास्त्रीय गायकी का तो महत्तम हिस्सा आलाप का हीं होता है जिसमे 'आ आ ...' की यति-गति के सिवा कुछ होता ही नहीं है। अर्थात सुर को सजाने-सँवारने, गहराई लाने मे 'आ' की भूमिका सबसे ज्यादा है। जिसने 'आ' को साध लिया, उसने संगीत की आधी साधना कर ली ऐसा माना जाता है। गौरतलब हो कि हमारे हिन्दी-समाज के रिश्तों में पुरुष नाम 'आकारांत' लिए होता है। ऐसा क्यूँ है ? हो सकता है कि पितृसत्तातमक व्यवस्था ने दूरगामी प्रभाव वाले 'आ' के गुण को ध्यान मे रख कर रिश्तों मे पुरुषसूचक नाम को 'आ' ध्वनि से युक्त रचा तो स्त्रीसूचक नाम को 'ई' ध्वनि से। कहीं न कहीं 'आ' के सर्वव्यापी गुण से हमारा पुरुष-प्रधान समाज प्रभावित रहा होगा। गौर करने की बात है चाचा, मामा, पिता जैसे नाम पुरुषों को दी,  इसके बावजूद माँ को इकारांत न बना सका हमारा समाज। 
एक बात गौर करने की और है, पुरुष और स्त्री को जब प्रतीक चिन्हों से दिखाया जाता है वहाँ भी पुरुष को तीरयुक्त एवं स्त्री को क्रॉसयुक्त दिखाया जाता है। 'आ' के गुण का साम्य यहाँ भी देखा जा सकता है। बदलते परिवेश-काल-व्यवस्था ने परंपरागत मूल्यों को क्षति पहुंचाई है। यहाँ तक कि शास्त्रीय-संगीत जो आलाप की गहराई पर टीका था की जगह पॉप, रॉक और सुगम संगीत ने ले लिया। आज भी बच्चों से पूछो कि किससे ज्यादा डर लगता है तो पिता का नाम लेते हैं। जहां ब्रो, डैडी, पॉप, सिस, अंकल ने व्यावहारिक समाज मे अपनी अप्रतिम उपस्थिती दर्ज की है, वहीं पिता, चाचा आदि शब्दों की व्याप्त गुणवत्ता का ह्रास हुआ है। जिस पुरुषप्रधान समाज ने पारिवारिक बंधन को अटूट बनाए रखा, जिसने परंपरागत मूल्यों से आने वाली पीढ़ियो को सींचा आज उसकी पकड़ ढीली पड़ रही है।
भारतीयता के हर पहलू पर आज 'आ' कमजोर पड़ रहा है। अपने सांस्कृतिक मूल्य-बोध को बचाना है तो हमें 'आ' को सहेजना पड़ेगा चाहे संगीत हो, समाज हो, रिश्तें हो, या भाषा।  

Friday, August 8, 2014

सहर होते न जाने राज़ क्या-क्या खोलती तकिया
गनीमत है ख़ुदा ने अश्क को बेरंग रक्खा है !


Sunday, August 3, 2014

डायरी के पन्ने से...

अपनी संरचना के हरेक  पहलू  में मधुर संगीत का आभास लिए मै एक अनछुआ अहसास था.....वीणा। किसी ने भी मेरे तंतुओ को छेड़ा नहीं था, तंबूरे को हाथ तक नहीं लगाया था। फिर भी अपने आवरण को सात्विक अहसास देने में मै सक्षम था। काल, उम्र, परिवेश की गनीमत कहिए या अपने को न छेड़े जाने की हीन-ग्रंथि ...मैंने खुद को उस बाज़ार को समर्पित करना उचित समझा जहां ऐसे साज के खरीददार मुंह बाए खड़े थे। अपने तारों को छेड़ने का निमंत्रण कईयों को दिया मैंने। सबने अपने आंतरिक आरोह-अवरोह के हिसाब से मेरे तंतुओं को कसा। तब मै खामोश रहा कि कोई तो उसकी नयी उपयोगिता सिद्ध करेगा। बार-बार मै ताल और राग के अनुसार बदला गया।
 
सबको सुकून पहुँचाता आज वीणा रो रहा है। उस आरोह-अवरोह को पाने के दौर मे कसे गए तारों का अस्तित्व नष्ट हो गया, वह टूट गया! अब न उसमे संगीत है, न जान। बस खोखला तंबूरा...शून्य में शून्य-सा। अपने परिवेश को पवित्रता के आवरण से ढकने वाला आज अपने साधकों की नज़र में बेजान है, बेकार है। शायद अपनी पवित्रता खो चुका है! अस्तित्व के इस देहावसान का जिम्मा कौन उठाएगा...मेरे तन्तु, मुझे छेड़ने वाले या खुद मै? 
सवाल अन्नुत्तरित रहेंगे हमेशा क्यूंकि भावनाओं की अदालत में दलीलें नहीं पेश की जाती हैं और बिना दलीलों के अदालती कार्यवाई नतीजे तक नहीं पहुँचती। 

18/3/2013
11:30 PM