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Tuesday, June 16, 2015

मछलीघर - विजयदेव नारायण साही

मैं तुम्हें निमंत्रित करता हूँ
कि मेरे साथ इस कल्पित खिड़की तक आओ
और ठण्डे काँच की इस दीवार को 
होठों से छुओ 
यह स्पर्श तुम्हें परिशोधित कर देगा 
ऊंचें शिखर की हवा की तरह।

खिड़की के पार 
तुम्हें अपनी ओर ताकती हुई 
दो आसमान सरीखी आँखें दिखेंगी
और जैसे जैसे तुम
नीचे से ऊपर टटोलते हुए
दीवार के सहारे उठोगे
वे आँखें तुम्हारे साथ उठेंगी।

अब तुम वापस चले जाओ
और नीची निगाहों से 
इस बंद कमरे में खिले हुए
नाज़ुक फूलों, सफ़ेद सीपियों और सदाबहार पत्तियों के बारे में 
विचारते रहो:
कोई आतुरता नहीं है
क्योंकि निगाह उठने पर
उस पार वे दोनों आँखें तुम्हें बराबर दीखेंगी
निर्निमेष'''
और तुम जब चाहोगे
धीरे धीरे इस ठण्डे काँच की दीवार के सहारे 
तृषाहीन आकर टिक जाओगे
परिशोधित। 

Wednesday, December 31, 2014

Tuesday, October 21, 2014

कहीं लौ थरथराते-से, कहीं हाथों में फुलझरियाँदीवाली काँपते अरमानों की है एक गवाही !

Thursday, October 16, 2014


वक़्त बेवक़्त जो अपने हैं पीछे छूट जाते हैं
जरा सी आँधियाँ आती हैं पत्ते टूट जाते हैं !

Wednesday, October 8, 2014

प्रसिद्ध लेखिका मृदुला गर्ग से बात-चीत














इस साक्षात्कार के लिए हमारे शिक्षक डॉ अरविंद कुमार संबल, अनुज अभिषेक कुमार उपाध्याय समान रूप से साधुवाद के पात्र हैं 

Tuesday, September 9, 2014

मेरी औक़ात को सरे-आम यूँ तौला न करो
चंद अल्फ़ाज़ से तेरी राहत-ए-जां छीन सकता हूँ।